Saturday, September 19, 2009

गली गली घूमता हूँ....

गली गली घूमता हूँ..
अपना शहर को खोजता हूँ..
दुनिया के भीड़ मैं अपनी ..
पहचान खोजता हूँ…
खुद रोज शीशे के सामने खड़े ..
होकर मैं कौन हून ???..
इसका जबाब लोगो की आँखों मैं खोजता हूँ..
गली गली ….
अब हर रिश्ते नया रंग ले चुके हैं..
मा की झप्पी ..
पता नहीं किसी की तलाश मैं खो गयी..
बापू के पके बॉल ..
अपने आप मुझसे कुछ बोल रहे ..
हर रिश्ता मुझमे कुछ खोज रहा..
शायद जमाने के दस्तूर ..
को शांत मान से गुनगुना राहा ..
इसलिए अब..
गली .. गली…
हर रात अपने को अलग तस्वीर मैं..
सोचता हून..
कल क्या होगा.. क्या करना है ..
यह सोचकर सोता हूँ..
अपनी आवाज़ की उचाईं और
कलाम की कीमत बड़ाने की सोचता हूँ..
भीड़ मैं अपनी पहचान खोजता हूँ …
हर जगह मैं अपनी आवाज़ खोजता हूँ
..
गली . गली…

हर आवाज़ अब पुरानी लगती है ..
हर चेहरा देखा महसूस होता है..
खाने में अब वो स्वाद कहाँ ..
दोस्तों की बातों अब वो मिठास कहाँ ..
वो मीठी और मदूर आवाज़ को सोचता हूँ..
नये रिश्ते में खो जाता हूँ ..
नया चेहरा .. मेरा जीवन साथी..
मेरी अर्धांगिनी. कैसी होगी ये सोचता हूँ…..
गली गली घूमता हूँ ..
अपने शहर को खोजता हूँ..

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